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Thursday, March 05, 2020

सोशल नेटवर्किंग के रंग

कहने को तो है बहुत कुछ,
पर तुमसे कुछ न कहूँगा।
भले मन में ही घुट जाऊँ,
फिर भी मैं  चुप ही रहूँगा।

भक्त को मैं libtard लगूँ।
Leftist को मैं भक्त।
क्या बीच की कोई राह नहीं ?
ये कैसा आया है वक़्त ?

मेरी हँसी को व्यंग्य बनाया। 
मेरी सादगी को मेरा अहम्।
मूर्ति के सामने हाथ क्या जोड़े,
तो यह था मेरा वहम।

feminism का समर्थन ना करूँ ,
तो सोच मेरी नीची है।
प्यार से कुछ सलाह दूँ,
तो सुजीत, तू बड़ा preachy है।

यहाँ थप्पड़ कहलाए
प्यार भरी थपकी
सरदार सजा बरोब्बर देगा ,
भूल भले हो कब की।

ये Internet पे बहते शब्द,
क्या कहर ढा गए।
दोस्त मेरे मुझसे रूठ गए।
गहरे रिश्ते पल में टूट गए।

इन शब्दों के पीछे का चेहरा ,
जब नज़र नहीं आता है।
उन्हें पढ़ने वाला उनमें ,
मनमाना अर्थ पाता है।

खुद को उत्पीड़ित समझने वाला
अपनेपन में racism ढूँढता है।
तुम्हारी party की तस्वीरों में ,
pervert नंगे जिस्म ढूंढता है। 




Fake news का ज़हर ,
ये propaganda का तेज़ाब
तुम्हारी एक चूक पे घात लगाए ,
बैठा trolling का सैलाब

तेरे हाथों में ऐ बहरूपिये क़ासिद,
ना मेरे माशूक़ को पैग़ाम दूंगा।
कहने को तो है बहुत कुछ,
पर सोचा है मैं  चुप ही रहूँगा।